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Irshad Shaikh
2 months ago

और गांव बिछड़ गया

गाँव का वातावरण हमेशा से ही सुकून भरा रहा है। सुबह-सुबह मोर की आवाज़, मंदिर की घंटियाँ, और खेतों में हल जोतने की आवाज़ से दिन की शुरुआत होती थी। जीवन सरल था, लेकिन सच्चा था। छोटे से गाँव "धावाबरा" में रहने वाला विजय एक बहुत ही होनहार और मेहनती युवक था। वह पढ़ाई में तेज़ था और हमेशा अपने पिता का नाम रोशन करना चाहता था। उसके पिता, रामसिंह, गाँव के पुराने किसान थे, जिन्होंने अपनी पूरी जिंदगी खेतों में गुजार दी थी। माँ, सावित्री, एक सीधी-सादी गृहिणी थीं, जिनका पूरा संसार उनका घर और परिवार ही था। विजय का सपना था कि वह शहर जाकर कुछ बड़ा करे, ताकि अपने परिवार की गरीबी मिटा सके। गाँव में संसाधनों की कमी थी, और अच्छी नौकरी मिलना लगभग असंभव था। इसलिए जब उसे शहर के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में दाखिला मिला, तो उसकी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा। लेकिन माँ-बाप के लिए यह खुशी उतनी आसान नहीं थी। उनके लिए विजय का जाना एक डर भी था—क्या शहर उसे बदल न दे? क्या वह वापस आएगा? शहर में आकर विजय को पहली बार अहसास हुआ कि यह दुनिया कितनी अलग है। ऊँची-ऊँची इमारतें, भागती-दौड़ती भीड़, कान फोड़ने वाला ट्रैफिक—यह सब कुछ उसके गाँव से बिलकुल अलग था। पहले तो उसे बहुत अजीब लगा, लेकिन धीरे-धीरे वह इस माहौल में ढलने लगा। कॉलेज में पढ़ाई के साथ-साथ उसे पार्ट-टाइम नौकरी भी करनी पड़ी, ताकि वह अपने खर्चे खुद उठा सके और घर पैसे भेज सके। उसने महसूस किया कि शहर में जीना आसान नहीं है। यहाँ कोई किसी का नहीं था। हर कोई अपने-अपने सपनों के पीछे भाग रहा था, बिना यह देखे कि रास्ते में कौन गिरा, कौन उठा। धीरे-धीरे विजय ने खुद को इस दौड़ का हिस्सा बना लिया। वह भी बाकी लोगों की तरह आगे बढ़ने लगा, लेकिन कहीं न कहीं, उसके अंदर का गाँव वाला लड़का अब भी जिंदा था। विजय की मेहनत रंग लाई। उसने कॉलेज में टॉप किया और एक बड़ी कंपनी में नौकरी पा ली। अब उसकी ज़िंदगी बदल गई थी। बड़ी गाड़ी, शानदार अपार्टमेंट, महंगे कपड़े—सब कुछ वैसा ही था जैसा उसने कभी सपना देखा था। लेकिन इसी बीच, वह अपने गाँव से दूर होता गया। पहले हर हफ्ते माँ-बाप से फोन पर बात होती थी, फिर महीने में एक बार, और फिर कभी-कभार। गाँव जाने का समय ही नहीं मिलता था। उसकी व्यस्त ज़िंदगी में अपने माता-पिता के लिए जगह कम होती जा रही थी। फिर एक दिन खबर आई—पिता की तबीयत बहुत खराब है। विजय सब कुछ छोड़कर गाँव भागा। जब वह पहुँचा, तो देखा कि पिता बिस्तर पर पड़े थे, और माँ की आँखों में आँसू थे। उन्हें देखकर विजय का दिल टूट गया। पिता ने कांपते हाथों से विजय का हाथ पकड़ा और धीमी आवाज़ में कहा, "बेटा, तूने बहुत ऊँचाई हासिल कर ली, लेकिन क्या तूने पाया भी कुछ?" विजय की आँखों में आँसू आ गए। वह समझ गया कि उसने दौलत तो कमा ली, लेकिन अपने असली खजाने—अपने माँ-बाप, अपनी मिट्टी—को खो दिया था। पिता के गुजर जाने के बाद विजय ने फैसला किया कि वह अब गाँव की ओर लौटेगा। उसने अपनी नौकरी छोड़ दी और गाँव में ही एक स्कूल खोलने का निश्चय किया, ताकि गाँव के बच्चों को अच्छी शिक्षा मिल सके और उन्हें शहर जाकर संघर्ष न करना पड़े। धीरे-धीरे, विजय का स्कूल एक मिशन बन गया। गाँव के लोग उसे फिर से अपनाने लगे। माँ की आँखों में फिर से खुशी लौट आई। अब विजय के पास ऊँची इमारतें नहीं थीं, लेकिन सच्चा सुख था। गाँव की मिट्टी में जो सुकून था, वह किसी भी बड़े शहर में नहीं मिल सकता था। हर कोई शहर की दौड़ में आगे निकलना चाहता है, लेकिन असली खुशियाँ वहीं होती हैं जहाँ अपनापन होता है।"

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